शांताकारं भुजंगशयनम् – अर्थ सहित श्लोक
**प्रस्तावना**
सनातन धर्म में भगवान विष्णु को जगत का पालनहार और परम शांति का प्रतीक माना जाता है। उनके अनेकों रूप हैं, जो भक्तों के हृदयों में भक्ति और श्रद्धा का संचार करते हैं। इन्हीं रूपों में से एक है उनका शांतिमय, अनंतशयनम् रूप, जिसका वर्णन ‘शांताकारं भुजंगशयनम्’ श्लोक में किया गया है। यह मात्र एक श्लोक नहीं, अपितु परमपिता परमेश्वर के उस दिव्य स्वरूप का ध्यान है, जो ब्रह्मांड के समस्त क्रियाकलापों का साक्षी और संचालक है। यह श्लोक भगवान विष्णु के शांत स्वरूप, अनंतनाग पर उनके शयन, पद्मनाभ होने और देवों द्वारा स्तुत्य होने का वर्णन करता है। इसका पाठ भक्तों को गहन शांति, स्थिरता और आध्यात्मिक उत्थान प्रदान करता है। आज हम इसी दिव्य श्लोक के अर्थ, इसकी पावन कथा और इसके पाठ से होने वाले लाभों पर विस्तार से चर्चा करेंगे, ताकि हर भक्त इसके गूढ़ रहस्यों को समझ सके और अपने जीवन में दिव्यता का अनुभव कर सके। यह श्लोक मात्र शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि भगवान विष्णु के सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान और परम करुणामय स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाला एक दिव्य साधन है। यह हमें जीवन के समस्त भयों और विकारों से मुक्ति दिलाकर परम सत्य की ओर अग्रसर करता है, ठीक वैसे ही जैसे कोई बालक अपनी माँ की गोद में सुरक्षित और निश्चिंत महसूस करता है।
**पावन कथा**
प्राचीन काल की बात है, एक समय जब पृथ्वी पर चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। धर्म का पतन हो रहा था और अधर्म का बोलबाला था। ऋषि-मुनि अपने आश्रमों में भी शांति से तपस्या नहीं कर पा रहे थे। देवताओं को भी असुरों के अत्याचार से मुक्ति नहीं मिल पा रही थी। ऐसे विकट समय में, एक महान तपस्वी ऋषि वशिष्ठ, जो अपनी गहन तपस्या और ब्रह्मज्ञान के लिए विख्यात थे, अत्यंत चिंतित थे। उन्होंने देखा कि संसार में अशांति, भय और असुरक्षा का वातावरण व्याप्त है। लोग अपने भीतर और बाहर, दोनों ही स्तरों पर शांति की तलाश में भटक रहे थे, पर उन्हें कहीं भी वास्तविक स्थिरता नहीं मिल रही थी। ऋषि वशिष्ठ ने सोचा कि इस ब्रह्मांड में एकमात्र परमपिता परमेश्वर ही हैं, जो समस्त सृष्टि को धारण करते हैं और परम शांति के दाता हैं। उन्होंने निश्चय किया कि वे उस परम शांत स्वरूप का ध्यान करेंगे, जो समस्त ब्रह्मांड का आधार है और जिसकी शांति में ही सृष्टि का संतुलन निहित है।
गहरे ध्यान में लीन होने के लिए, ऋषि वशिष्ठ ने हिमालय की उन ऊँची चोटियों को चुना जहाँ प्रकृति अपनी सर्वाधिक शांत अवस्था में होती है। उन्होंने अपनी समस्त इंद्रियों को नियंत्रित किया और मन को एकाग्र कर भगवान विष्णु के उस स्वरूप का चिंतन आरंभ किया, जिसका उल्लेख वेदों और पुराणों में ‘शांताकारं भुजंगशयनम्’ के रूप में किया गया है। कई दिनों तक वे बिना अन्न-जल ग्रहण किए, अटल ध्यान में बैठे रहे। उनकी तपस्या की प्रचंडता से वातावरण में एक अद्भुत ऊर्जा का संचार होने लगा। दूर-दूर से साधु और ऋषि उनके आश्रम के पास आकर उस दिव्य आभा को महसूस करते थे, जो वशिष्ठ जी की तपस्या से उत्पन्न हो रही थी। अंततः, उनकी भक्ति और एकाग्रता का प्रतिफल उन्हें मिला। उनके सामने एक दिव्य प्रकाश पुंज प्रकट हुआ और धीरे-धीरे उस प्रकाश में भगवान विष्णु का भव्य, शांतिमय स्वरूप दृष्टिगोचर हुआ।
ऋषि वशिष्ठ ने देखा कि भगवान विष्णु अनंत क्षीरसागर में, सहस्र फनों वाले आदि शेषनाग की विशाल और कोमल शैया पर शांत भाव से विराजमान हैं। शेषनाग के फन एक अद्भुत छत्र की भाँति उनके दिव्य मस्तक पर शोभायमान थे। उनका शरीर अत्यंत शांत और सौम्य था, जैसे स्वयं ब्रह्मांड की समस्त शांति उनके भीतर समाहित हो गई हो। उनके विशाल नेत्र आधी-खुली अवस्था में थे, जो सृष्टि के हर कण पर अपनी करुणामयी दृष्टि बनाए हुए थे, परंतु उनके मुखमंडल पर परम योगनिद्रा की शांति स्पष्ट झलक रही थी। उनके चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित थे, जो उनकी शक्ति, संरक्षण, दंड और सृजन की क्षमता का प्रतीक थे। उनके वक्ष पर श्रीवत्स का चिन्ह और कंठ में कौस्तुभ मणि चमक रही थी, जो उनके दिव्य सौंदर्य को और भी बढ़ा रही थी। सबसे अद्भुत दृश्य था उनके नाभि कमल से निकले हुए ब्रह्मा जी, जो सृष्टि की रचना के लिए तैयार बैठे थे, और यह दर्शित करता था कि सृष्टि का सृजन भी परम शांति की अवस्था से ही होता है। उनके आसपास देवतागण, जैसे इंद्र, अग्नि, वरुण, वायु, कुबेर, और सूर्य, हाथ जोड़े उनकी स्तुति कर रहे थे, और सिद्ध, गंधर्व, यक्ष और किन्नर भी उनके चरणों में नतमस्तक होकर अपनी श्रद्धा व्यक्त कर रहे थे।
यह दृश्य इतना भव्य और मनमोहक था कि ऋषि वशिष्ठ के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी। उन्होंने अनुभव किया कि यह वही परम शांति है जिसकी खोज में वे निकले थे। भगवान विष्णु का यह भुजंगशयनम् रूप वास्तव में समस्त ब्रह्मांड का आधार है, जहां सब कुछ स्थिर और शांत है, भले ही बाहर कितना भी कोलाहल क्यों न हो। उन्होंने अनुभव किया कि यह परमेश्वर का वह स्वरूप है जो हर प्रकार के भय और अशांति से परे है। ऋषि वशिष्ठ ने उस दिव्य दर्शन के बाद, अपने तप से प्राप्त समस्त ज्ञान और अनुभूति को इस दिव्य श्लोक में समाहित कर दिया। उन्होंने यह भी समझा कि इस शांतिमय स्वरूप का ध्यान करने से व्यक्ति को संसार की माया और मोह से मुक्ति मिलती है और वह परम सत्य के निकट पहुँचता है। इस दर्शन ने ऋषि वशिष्ठ के जीवन को एक नया अर्थ और उद्देश्य दिया, और उन्होंने यह निश्चय किया कि वे इस ज्ञान को संसार के हर कोने तक पहुँचाएँगे।
यह श्लोक ऋषि वशिष्ठ की उसी दिव्य अनुभूति का सार था। उन्होंने इस श्लोक के माध्यम से संसार को यह संदेश दिया कि वास्तविक शांति और स्थिरता भगवान विष्णु के इस शांतिमय स्वरूप के ध्यान में ही निहित है। जो भी इस श्लोक का अर्थ समझकर और भाव से इसका पाठ करता है, उसे भी वैसी ही शांति और भयमुक्ति प्राप्त होती है जैसी ऋषि वशिष्ठ ने अनुभव की थी। इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि भगवान विष्णु का यह रूप न केवल सृष्टिकर्ता का है, बल्कि वह समस्त भय और क्लेशों को हरने वाला भी है, और अनंत शांति का दाता है।
**दोहा**
शांत स्वरूप प्रभु विष्णु के, शेषनाग पर शयन।
ध्यान करे जो भक्ति से, मिटे सकल भव भय।।
**चौपाई**
क्षीरसिंधु में प्रभु आप विराजे,
शेषनाग फन छत्र साजे।
नाभि कमल से ब्रह्मा प्रगटाए,
सृष्टि सकल का क्रम समझाए।।
मेघवर्ण मनभावन सोहे,
योगी जन के मन को मोहे।
लक्ष्मीकांत हैं कमल नयनारे,
भवसागर से पार उतारे।।
देव सिद्ध सब करें वंदना,
हरें सकल जग की वेदना।
सर्व लोक के पालक स्वामी,
निश दिन जपिए अंतर्यामी।।
**पाठ करने की विधि**
‘शांताकारं भुजंगशयनम्’ श्लोक का पाठ करने की विधि अत्यंत सरल और भक्तिपूर्ण है। इसके नियमित पाठ से मन को असीम शांति मिलती है और आध्यात्मिक उन्नति होती है। यह ध्यान रखें कि किसी भी धार्मिक क्रिया में भाव और श्रद्धा ही मुख्य होते हैं, विधि तो मात्र एक सहायक है।
1. **शुद्धि और आसन:** सर्वप्रथम स्नान करके तन और मन को शुद्ध करें। स्वच्छ, ढीले और आरामदायक वस्त्र धारण करें। एक शांत और पवित्र स्थान पर कुश या ऊनी आसन बिछाकर बैठें। दिशा का विशेष महत्व नहीं है, परंतु पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करना उत्तम माना जाता है, क्योंकि यह सकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह के लिए सहायक होता है।
2. **संकल्प:** श्लोक पाठ आरंभ करने से पूर्व मन में यह संकल्प करें कि आप यह पाठ भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने, मन की शांति, आध्यात्मिक उन्नति और समस्त संसार के कल्याण के लिए कर रहे हैं। यह संकल्प आपके उद्देश्य को स्पष्ट करता है और ऊर्जा को केंद्रित करता है।
3. **ध्यान:** पाठ से पहले कुछ क्षणों के लिए आँखें बंद करके भगवान विष्णु के शांतिमय स्वरूप का ध्यान करें। कल्पना करें कि वे अनंत क्षीरसागर में शेषनाग पर विराजमान हैं, उनके चेहरे पर एक अद्भुत शांति और करुणा है और उनके चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म हैं। इस दिव्य छवि को अपने हृदय में उतारने का प्रयास करें। यह ध्यान आपको श्लोक के अर्थ से गहराई से जुड़ने में सहायता करेगा।
4. **उच्चारण:** श्लोक का उच्चारण स्पष्ट, शुद्ध और मधुर स्वर में करें। प्रत्येक शब्द का सही उच्चारण महत्वपूर्ण है, क्योंकि ध्वनि की शुद्धता मंत्र की शक्ति को बढ़ाती है। आप इसे धीरे-धीरे और ध्यानपूर्वक पढ़ें, हर शब्द के पीछे के अर्थ को महसूस करते हुए।
5. **माला का प्रयोग (ऐच्छिक):** यदि आप इसे मंत्र के रूप में जपना चाहते हैं, तो तुलसी या चंदन की माला का उपयोग कर सकते हैं। आप अपनी सुविधा और समय अनुसार 1, 3, 5, 11, 21, 51 या 108 बार पाठ कर सकते हैं। संख्या के बजाय गुणवत्ता पर ध्यान देना अधिक महत्वपूर्ण है।
6. **समय:** इस श्लोक का पाठ प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में (सूर्य उदय से डेढ़ घंटा पहले) या संध्याकाल में (सूर्यास्त के समय) करना विशेष फलदायी होता है, परंतु दिन के किसी भी समय श्रद्धापूर्वक इसका पाठ किया जा सकता है। नियमितता सर्वोत्तम परिणाम देती है।
7. **समर्पण:** पाठ के अंत में, अपनी भक्ति और प्रार्थना भगवान विष्णु को समर्पित करें और उनसे अपने जीवन में शांति, सद्बुद्धि, आरोग्य और समस्त शुभता के लिए प्रार्थना करें। अपनी इच्छाओं को व्यक्त करें और ईश्वर की कृपा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें।
**पाठ के लाभ**
‘शांताकारं भुजंगशयनम्’ श्लोक का नियमित और श्रद्धापूर्वक पाठ करने से भक्तों को अनेक प्रकार के लौकिक और पारलौकिक लाभ प्राप्त होते हैं, जो उनके जीवन को सुखमय और सार्थक बनाते हैं:
1. **मानसिक शांति और स्थिरता:** यह श्लोक भगवान विष्णु के शांत स्वरूप का वर्णन करता है, और इसके पाठ से व्यक्ति के मन में भी वैसी ही शांति और स्थिरता आती है। चिंताएँ, भय और तनाव दूर होते हैं, और मन एकाग्र होता है, जिससे निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है।
2. **भय मुक्ति:** भगवान विष्णु को भवभयहरं (सांसारिक भयों को हरने वाला) कहा गया है। इस श्लोक का पाठ करने से अज्ञात भय, असुरक्षा की भावनाएँ, और मृत्यु का भय दूर होता है और व्यक्ति में आत्मबल का संचार होता है। यह आत्मविश्वास बढ़ता है।
3. **आध्यात्मिक प्रगति:** यह श्लोक ध्यान और योगियों के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके नियमित पाठ से व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना जागृत होती है, भगवान से गहरा संबंध स्थापित होता है और भक्ति योग में प्रगति होती है। यह मोक्ष के मार्ग पर चलने में सहायता करता है।
4. **सकारात्मक ऊर्जा:** इस श्लोक का उच्चारण वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। यह घर और आसपास के माहौल को पवित्र और शांत बनाता है, जिससे परिवार में सुख-शांति बनी रहती है। नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव कम होता है।
5. **संकटों से रक्षा:** भगवान विष्णु जगत के पालनहार हैं और भक्तों के रक्षक हैं। इस श्लोक का पाठ करने वाले भक्त को उनकी दिव्य शक्ति से संकटों, बाधाओं और अप्रत्याशित विपत्तियों से रक्षा मिलती है। वे हर मुश्किल घड़ी में एक अदृश्य शक्ति का अनुभव करते हैं।
6. **इच्छा पूर्ति:** सच्चे मन से की गई प्रार्थना और इस श्लोक का पाठ करने से धर्मसम्मत इच्छाओं की पूर्ति होती है। भगवान अपने भक्तों की सभी न्यायोचित इच्छाओं को पूर्ण करते हैं, बशर्ते वे इच्छाएँ लोक कल्याणकारी हों।
7. **बुद्धि और ज्ञान की प्राप्ति:** भगवान विष्णु को परम ज्ञान का स्रोत माना जाता है। इस श्लोक के पाठ से व्यक्ति की बुद्धि तीव्र होती है, स्मरण शक्ति बढ़ती है और उसे सही-गलत का विवेक प्राप्त होता है, जिससे जीवन के निर्णय बेहतर होते हैं।
8. **अकाल मृत्यु से रक्षा:** माना जाता है कि भगवान विष्णु के इस ध्यान मंत्र का पाठ करने से अकाल मृत्यु का भय भी दूर होता है और व्यक्ति को दीर्घायु प्राप्त होती है। यह श्लोक एक कवच के समान कार्य करता है।
9. **ग्रह दोष शांति:** ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, भगवान विष्णु के इस स्वरूप का ध्यान और श्लोक पाठ करने से कई प्रकार के ग्रह दोषों का शमन होता है और कुंडली में शुभ प्रभावों में वृद्धि होती है।
**नियम और सावधानियाँ**
इस पवित्र श्लोक का पाठ करते समय कुछ नियमों और सावधानियों का पालन करना अत्यंत आवश्यक है ताकि इसके पूर्ण लाभ प्राप्त हो सकें और किसी प्रकार का नकारात्मक प्रभाव न पड़े:
1. **पवित्रता:** पाठ करते समय शारीरिक और मानसिक शुद्धता अत्यंत आवश्यक है। स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहनें और मन में किसी प्रकार का नकारात्मक विचार, क्रोध, ईर्ष्या या द्वेष न लाएँ। मन को शांत और निर्मल रखें।
2. **श्रद्धा और विश्वास:** किसी भी मंत्र या श्लोक का पाठ बिना श्रद्धा और पूर्ण विश्वास के फलदायी नहीं होता। भगवान विष्णु के प्रति अटल विश्वास रखें कि वे आपकी प्रार्थनाएँ अवश्य सुनेंगे और आपको उनकी कृपा अवश्य मिलेगी। यह विश्वास ही आपकी साधना की नींव है।
3. **नियमितता:** श्लोक का पाठ अनियमित रूप से करने के बजाय प्रतिदिन एक निश्चित समय पर और निश्चित संख्या में करना अधिक प्रभावी होता है। यह आपकी साधना में स्थिरता लाता है और मन को अनुशासित करता है। नियमितता से ही सकारात्मक परिणाम मिलते हैं।
4. **सात्विक जीवन:** श्लोक पाठ करने वाले व्यक्ति को सात्विक जीवन शैली अपनानी चाहिए। मांसाहार, शराब, धूम्रपान और अन्य तामसिक वस्तुओं से दूर रहना चाहिए। पवित्रता केवल बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक भी होनी चाहिए।
5. **एकाग्रता:** पाठ करते समय मन को भटकने न दें। अपना पूरा ध्यान श्लोक के अर्थ और भगवान विष्णु के स्वरूप पर केंद्रित करें। मोबाइल, टेलीविजन या अन्य किसी भी प्रकार की बाहरी बाधाओं से बचें। एक शांत वातावरण चुनें जहाँ कोई व्यवधान न हो।
6. **अहंकार का त्याग:** श्लोक पाठ को किसी दिखावे या अहंकार के लिए न करें। यह एक व्यक्तिगत आध्यात्मिक साधना है, जिसे विनम्रता और समर्पण भाव से करना चाहिए। अहंकार साधना के फल को नष्ट कर देता है।
7. **गुरु का मार्गदर्शन (ऐच्छिक):** यदि आप इस मंत्र का गहरा अध्ययन या अनुष्ठान करना चाहते हैं, या आपको इसके अर्थ समझने में कठिनाई हो रही है, तो किसी योग्य गुरु से मार्गदर्शन लेना उचित रहेगा। गुरु कृपा से साधना अधिक सुचारु रूप से संपन्न होती है और सही दिशा मिलती है।
8. **स्त्री-पुरुष भेद नहीं:** इस श्लोक का पाठ स्त्री और पुरुष दोनों समान रूप से कर सकते हैं। धर्मग्रंथों में इस संबंध में कोई भेद नहीं किया गया है। मासिक धर्म के समय महिलाएं मन ही मन में इस श्लोक का पाठ कर सकती हैं, परंतु आसन पर बैठकर पूजन करने से बचें।
**निष्कर्ष**
‘शांताकारं भुजंगशयनम्’ मात्र एक श्लोक नहीं, बल्कि भगवान विष्णु के सर्वव्यापक, शांतिपूर्ण और संरक्षक स्वरूप का एक दिव्य ध्यान है। यह उन सभी आत्माओं के लिए एक आश्रय है जो संसार की अशांति और भयों से मुक्ति पाना चाहती हैं। ऋषि वशिष्ठ की पावन कथा हमें यह सिखाती है कि परम शांति की खोज बाहरी दुनिया में नहीं, बल्कि अपने भीतर और भगवान के शांत स्वरूप में ध्यान लगाने से प्राप्त होती है। इस श्लोक का अर्थ समझकर और भावपूर्वक पाठ करने से व्यक्ति न केवल आंतरिक शांति का अनुभव करता है, बल्कि वह आध्यात्मिक उन्नति की ओर भी अग्रसर होता है। यह हमें सिखाता है कि जीवन की हर विषम परिस्थिति में भी, यदि हमारा मन भगवान विष्णु के शांतिमय रूप में लीन हो जाए, तो हम समस्त भयों और चिंताओं से मुक्त हो सकते हैं। आइए, हम सभी इस दिव्य श्लोक को अपने हृदय में धारण करें और भगवान विष्णु के अनंत गुणों का स्मरण करते हुए अपने जीवन को परम शांति और आनंद से भर लें। हरे कृष्ण महामंत्र की महिमा की तरह ही, यह श्लोक भी हमें कृष्ण और उनके विविध रूपों से जुड़ने, भक्ति योग के मार्ग पर चलने और वास्तविक आध्यात्मिक संबंध स्थापित करने का एक सशक्त माध्यम प्रदान करता है। यह हमें स्मरण कराता है कि परम सत्य एक है, और उसके विविध रूप हमें शांति तथा मुक्ति की ओर ले जाते हैं। भगवान विष्णु का यह स्वरूप हमें यह भी सिखाता है कि जीवन के कर्मों को करते हुए भी कैसे शांत और स्थिर रहा जा सकता है, ठीक वैसे ही जैसे वे सृष्टि के समस्त कार्यों का संचालन करते हुए भी परम शांत अवस्था में रहते हैं। इस श्लोक का नित्य पाठ जीवन को एक दिव्य उद्देश्य प्रदान करता है और हमें उस परम आनंद की ओर ले जाता है जो केवल ईश्वर की शरण में ही प्राप्त होता है।
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भक्ति, विष्णु स्तोत्र, आध्यात्मिक चिंतन
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विष्णु मंत्र, शांताकारं भुजंगशयनम्, भगवान विष्णु, स्तोत्र पाठ, आध्यात्मिक शांति, सनातन धर्म, भक्ति योग, नारायण ध्यान, भगवद्गीता, पूजा विधि

