काली कमली वाला मेरा यार है: जन्माष्टमी पर श्याम संग अटूट प्रेम का भावपूर्ण भजन और उसकी गहन कथा
जब भी हृदय में ‘काली कमली वाला’ नाम गूँजता है, एक अवर्णनीय मधुरता और अपनेपन का अहसास रोम-रोम में भर जाता है। यह केवल दो शब्द नहीं, बल्कि कोटि-कोटि भक्तों के आराध्य, उनके प्राणप्रिय सखा, भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनके अगाध प्रेम और विश्वास का जीवंत प्रतीक है। यह वह भाव है जहाँ प्रभु और भक्त के बीच की दूरी मिट जाती है, जहाँ ईश्वर एक सर्वशक्तिमान सत्ता से कहीं बढ़कर, हमारे सबसे प्रिय ‘यार’ बन जाते हैं। विशेष रूप से ‘जन्माष्टमी’ के पावन अवसर पर, जब संपूर्ण विश्व कान्हा के जन्मोत्सव में लीन हो जाता है, तब यह आत्मीय संबंध और भी गहरा और सुमधुर हो उठता है। ‘काली कमली वाला मेरा यार है’ – यह पंक्ति मात्र एक भजन का अंश नहीं, अपितु हर उस आत्मा की पुकार है जो अपने श्याम सुंदर में एक सच्चा मित्र पाती है, एक ऐसा मित्र जो हर पल साथ है, हर दुख-सुख का साथी है। सनातन स्वर के इस भक्तिमय ब्लॉग में, आइए हम इसी अलौकिक ‘कृष्ण भक्ति’ के गहरे समुद्र में गोता लगाएं, उस ‘श्याम से रिश्ता’ को समझें जो कालातीत है, और ‘भगवान कृष्ण’ की उन दिव्य लीलाओं में खो जाएं जिन्होंने काली कमली ओढ़कर, साधारण ग्वाले का वेश धारण कर, प्रेम और मित्रता का सर्वोच्च आदर्श स्थापित किया।
भगवान श्रीकृष्ण की लीलाएं अनंत हैं और उनका प्रत्येक रूप भक्तों के हृदय में बसने वाला है। ‘काली कमली वाला’ यह संबोधन सुनते ही, नेत्रों के सामने वृंदावन की वह मनमोहक छवि उभर आती है, जहाँ श्यामसुंदर अपनी काली कमली ओढ़े, गौएँ चराते, बाँसुरी की मधुर तान छेड़ते और अपने ग्वाल-मित्रों के साथ अठखेलियाँ करते दिखाई देते हैं। यह रूप उनकी परम सरलता, सहजता और सबसे बढ़कर, उनकी अद्वितीय मित्रता का प्रतीक है।
उनकी कथा का आरंभ ही अद्भुत है। देवकी और वसुदेव के आठवें पुत्र के रूप में कंस के कारागार में जन्म लेने वाले भगवान कृष्ण ने अपनी बाल लीलाओं से ही यह सिद्ध कर दिया था कि वे कोई साधारण बालक नहीं हैं। गोकुल में उनका लालन-पालन हुआ, जहाँ उन्होंने माखन चोरी, गोपियों संग रासलीला, पूतना वध, कालिया मर्दन जैसी अनेक लीलाएँ कीं। इन सभी लीलाओं में उनकी दिव्य शक्ति और मानवीय रूप का एक अद्भुत समन्वय था। वृंदावन की कुंज गलियों में, यमुना के पावन तट पर, और गोवर्धन पर्वत की शीतल तलहटी में, उन्होंने अपनी काली कमली ओढ़कर अनगिनत लीलाएँ कीं। यह काली कमली सिर्फ एक वस्त्र मात्र नहीं थी; यह उनके भक्तों के लिए सुरक्षा का एक आवरण थी, प्रेम का एक प्रतीक थी, और उनके सहज, सरल, अहंकार रहित स्वभाव का एक दर्पण थी।
ग्वाल-बालों के साथ उनकी मित्रता तो जग-प्रसिद्ध है। वे अपने मित्रों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते थे, उनके साथ भोजन करते थे, और उनके हर सुख-दुख में भागीदार होते थे। उनकी परम मित्र सुदामा के साथ उनकी सच्ची दोस्ती, जो बिना किसी भेदभाव या सामाजिक ऊँच-नीच के थी, आज भी लोगों को निस्वार्थ प्रेम और सच्ची मित्रता का पाठ पढ़ाती है। जब वे गायें चराने जाते थे, तब काली कमली उनके कंधे पर होती थी। कभी वही कमली बिछाकर वे यमुना किनारे अपने ग्वाल-मित्रों के साथ विश्राम करते थे, तो कभी उसी कमली में किसी शीत से ठिठुरते मित्र को लपेटकर गरमाहट देते थे। यह उनका ‘यार’ वाला रूप है – एक ऐसा मित्र जो सदैव साथ खड़ा रहता है, जो अपने मित्रों की लाज रखता है, और उनके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहता है। वे केवल ईश्वर नहीं, वे उनके ‘यार’ थे।
गोवर्धन लीला इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। जब देवराज इंद्र के अहंकार के कारण वृंदावन पर भारी वर्षा होने लगी और जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया, तब भगवान कृष्ण ने अपनी कनिष्ठा उंगली पर विशाल गोवर्धन पर्वत को उठा लिया। उस समय भी उन्होंने अपनी वही सहजता और ग्वाले का रूप बनाए रखा। हजारों-हजारों गोप-गोपियाँ, गायें और बछड़े उस पर्वत के नीचे सात दिनों तक सुरक्षित रहे। यह उनकी अलौकिक शक्ति का प्रदर्शन था, लेकिन साथ ही अपने भक्तों, अपने मित्रों और ब्रजवासियों के प्रति उनकी गहन चिंता और अटूट प्रेम का भी प्रमाण था। वे अपने भक्तों के लिए ‘कमली’ की तरह ही सुरक्षा और सहारा बन जाते हैं, जो हर विपत्ति से बचाने को तत्पर रहते हैं। यह ‘कृष्ण कथा’ हर भक्त के हृदय में गहरे उतर जाती है।
यह काली कमली केवल वृंदावन तक ही सीमित नहीं रही। जब महाभारत के युद्ध में अर्जुन धर्म-संकट में थे और कर्तव्य-विमुख हो रहे थे, तब भगवान कृष्ण ने सारथी बनकर उन्हें ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ का अमर ज्ञान दिया। उस समय भी उनकी सहजता और मित्रता का भाव स्पष्ट था। वे केवल एक मार्गदर्शक नहीं, बल्कि अर्जुन के सबसे बड़े ‘यार’ थे, जिन्होंने उन्हें जीवन के सबसे कठिन क्षण में सही राह दिखाई, उन्हें धर्म और कर्तव्य का बोध कराया। ‘श्याम से रिश्ता’ केवल भक्त और भगवान का औपचारिक संबंध नहीं है, बल्कि एक आत्मा का परमात्मा से, एक मनुष्य का अपने परम सखा से, एक अटूट और पवित्र बंधन है।
यह केवल एक सुंदर कल्पना नहीं है कि ‘काली कमली वाला मेरा यार है’, यह भक्ति मार्ग का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और गहरा अनुभव है। जब भक्त अपने इष्टदेव को केवल एक दूरस्थ, अलौकिक या भव्य भगवान के रूप में नहीं, बल्कि एक परम मित्र, सखा, या अपने सबसे करीबी और विश्वसनीय व्यक्ति के रूप में देखता है, तब भक्ति की गहराई और आनंद कई गुना बढ़ जाता है। भक्ति के इस भाव को ‘सखा भाव’ की भक्ति कहते हैं, जहाँ औपचारिकताएं, भय और दूरियाँ समाप्त हो जाती हैं, और एक अंतरंग, व्यक्तिगत तथा बिना शर्त संबंध स्थापित हो जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण का ‘काली कमली वाला’ रूप हमें यही सिखाता है कि ईश्वर को पहुँच से दूर या केवल भय का पात्र मानने की बजाय, उन्हें अपने जीवन का अभिन्न अंग, अपना सबसे प्रिय साथी बनाया जा सकता है। वह हमारे हर छोटे-बड़े सुख-दुख में सहभागी हैं, हमारी हर बात सुनने वाले हैं, हमारे हर विचार को समझने वाले हैं, और हमें सदैव सही मार्ग दिखाने वाले हैं। इस भाव से की गई ‘कृष्ण भक्ति’ में कोई बनावट नहीं होती, कोई प्रदर्शन नहीं होता, केवल हृदय की सच्ची पुकार होती है, आत्मा की पवित्र अभिव्यक्ति होती है।
यह अनूठा रिश्ता भक्तों को न केवल मानसिक शांति, बल्कि गहन आध्यात्मिक संतोष भी प्रदान करता है। जब जीवन में चुनौतियाँ और परेशानियाँ आती हैं, तब भक्त यह सोचकर असीम शक्ति और धैर्य प्राप्त करता है कि उसका परम ‘यार’ काली कमली वाला उसके साथ है। यह विश्वास हमें हर बाधा से लड़ने की प्रेरणा देता है, और यह भरोसा दिलाता है कि अंततः सब कुछ शुभ ही होगा। ‘कृष्ण भक्ति’ हमें यह भी सिखाती है कि प्रेम ही सर्वोच्च मार्ग है, और यह प्रेम जब भगवान के साथ स्थापित हो जाता है, तब जीवन की हर समस्या का समाधान मिल जाता है और आत्मा धन्य हो जाती है।
‘श्याम से रिश्ता’ हमें यह भी बताता है कि ईश्वर किसी भव्य सिंहासन पर नहीं बैठते, वे हमारे आसपास, हमारे हृदय में, और हमारी आत्मा में निवास करते हैं। उनकी काली कमली सादगी और विनम्रता का प्रतीक है, जो हमें यह याद दिलाती है कि सच्ची महानता बाहरी आडंबर, पद या शक्ति में नहीं, बल्कि आंतरिक शुद्धता, प्रेम और सहजता में निहित है। ‘जन्माष्टमी’ के पावन अवसर पर यह संबंध और भी मुखर हो उठता है, जब हम उनके बाल स्वरूप की पूजा करते हैं, जो सबसे प्रिय, सहज और सुलभ होता है। यह एक ‘आध्यात्मिक संबंध’ है जो हमें मायावी संसार से ऊपर उठकर, दिव्य प्रेम का अनुभव कराता है।
जन्माष्टमी का पर्व ‘काली कमली वाले’ के जन्मोत्सव का सबसे बड़ा और आनंदमय त्योहार है। इस दिन भक्त अपने श्याम सुंदर से अपने रिश्ते को और भी अधिक मजबूत और भावपूर्ण बनाते हैं। जन्माष्टमी की रात को घरों और मंदिरों में विशेष ‘पूजा’, ‘आरती’ और अनुष्ठानों का भव्य आयोजन किया जाता है। भक्तगण दिन भर उपवास रखते हैं, और मध्यरात्रि को, जब भगवान कृष्ण का जन्म होता है, तब उनका प्रतीकात्मक अभिषेक किया जाता है – दूध, दही, घी, शहद और गंगाजल से स्नान कराकर। इसके बाद उन्हें सुंदर वस्त्र और आभूषण पहनाए जाते हैं। फिर उन्हें एक सजे हुए पालने में बिठाकर झुलाया जाता है, जिसे ‘झूलन उत्सव’ कहते हैं। यह दृश्य इतना मनमोहक होता है कि हर भक्त का हृदय आनंद से भर उठता है।
इस शुभ अवसर पर ‘भजन’ गायन का विशेष महत्व है। ‘काली कमली वाला मेरा यार है’ जैसे भावपूर्ण और ऊर्जावान भजन गाकर भक्त अपनी अगाध श्रद्धा, प्रेम और उल्लासपूर्ण भक्ति व्यक्त करते हैं। मंदिरों में विशेष रूप से ‘कृष्ण कथा’ और ‘कृष्ण लीला’ का पाठ होता है, जिसमें भगवान की अद्भुत और मनमोहक लीलाओं का वर्णन किया जाता है। भक्तजन नाचते-गाते हुए, ढोल-मंजीरों की थाप पर झूमते हुए अपने प्रिय कान्हा का जन्मोत्सव मनाते हैं। इस दौरान ‘आरती’ की जाती है, जिसमें दीपक प्रज्ज्वलित कर प्रभु की स्तुति की जाती है और वातावरण दिव्य सुगंध से भर जाता है।
इस दिन कई प्रकार के स्वादिष्ट पकवान ‘छप्पन भोग’ के रूप में तैयार किए जाते हैं, जिनमें भगवान कृष्ण को प्रिय माखन-मिश्री, पंजीरी, खीर, मेवे और विभिन्न प्रकार के फल प्रमुख होते हैं। ये सभी भोग भगवान को अर्पित करने के बाद भक्तों में ‘प्रसाद’ के रूप में वितरित किए जाते हैं। इन सभी अनुष्ठानों का उद्देश्य भगवान के प्रति अपने प्रेम को प्रकट करना और उनके साथ अपने ‘आध्यात्मिक संबंध’ को गहरा करना है। ‘भगवान कृष्ण’ के जन्म का यह उत्सव केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि प्रेम, आनंद, उत्सव और ‘भक्ति’ का एक महा महोत्सव है। यह हमें यह स्मरण कराता है कि हमारा प्रिय ‘कान्हा’ सदैव हमारे साथ है, हमारी रक्षा और मार्गदर्शन के लिए।
कई स्थानों पर मनमोहक झाँकियाँ भी सजाई जाती हैं, जो कृष्ण के जीवन की विभिन्न घटनाओं, विशेषकर उनके बाल रूप की नटखट लीलाओं को जीवंत करती हैं। बच्चे कृष्ण और राधा के वेश में सजकर इन उत्सवों में चार चाँद लगा देते हैं। यह सभी परंपराएं और ‘पूजा विधि’ भक्तों को भगवान कृष्ण के करीब लाती हैं और उन्हें अपने ‘श्याम सुंदर’ के साथ एक निजी और गहरा संबंध महसूस कराती हैं। जन्माष्टमी की रात कान्हा के जन्म के बाद ‘पंचामृत’ और ‘माखन-मिश्री’ का प्रसाद वितरित करना एक आनंदमय परंपरा है। यह दिन भक्तों को ‘श्याम’ के चरणों में पूर्णतः समर्पित होने का अवसर देता है।
इस प्रकार, ‘काली कमली वाला मेरा यार है’ केवल एक भावनात्मक पंक्ति नहीं, बल्कि एक गहन आध्यात्मिक सत्य और ‘कृष्ण भक्ति’ का सार है। यह हमें उस परमपिता परमेश्वर से एक अनौपचारिक, आत्मीय और प्रेमपूर्ण संबंध स्थापित करने की प्रेरणा देता है, जो हमें जीवन के हर मोड़ पर सहारा देता है। ‘जन्माष्टमी’ के पावन और आनंदमय अवसर पर, जब हम भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का आनंद मनाते हैं, तब यह भाव और भी प्रगाढ़ हो जाता है। हम उनके बाल रूप, उनके ग्वाले रूप और उनके परम मित्र रूप से जुड़कर असीम शांति और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
आइए, हम सब अपने हृदय के पट खोलें और उस प्यारे ‘श्याम’ को अपना परम ‘यार’ मानें, जो हर संकट में हमारा साथ देता है, हर दुख में संबल बनता है और हर पल हमें प्रेम, आनंद और दिव्य ऊर्जा का अनुभव कराता है। उसकी काली कमली में न केवल सादगी, विनम्रता और सहजता है, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रेम, ज्ञान और आशीर्वाद भी समाहित है। ‘कृष्ण भक्ति’ के इस पावन मार्ग पर चलकर हम अपने जीवन को धन्य करें और सदैव यह स्मरण रखें कि ‘काली कमली वाला मेरा यार है’, और उसका साथ पाकर जीवन में कोई भी चुनौती असंभव नहीं लगती। वह हमारा सखा, हमारा गुरु, हमारा मार्गदर्शक और हमारा सब कुछ है। जय श्री कृष्ण! राधे-राधे!

